जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी..!
रामनवमी पर विशेष
राम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से पुकारा जाता है। हमारी संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं है जो राम के समान मर्यादित , धीर-वीर और प्रशांत हो। इस एक विराट चरित्र को गढ़ने में भारत के सहस्त्रों प्रतिभाओं ने कई शताब्दियों तक अपनी मेधा का योगदान दिया । आदि कवि वाल्मीकि ने अपनी लेखनी और प्रतिभा से इस चरित्र को संवारा। वाल्मीकि के राम लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष हैं। उन्होंने लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध किया और लोक धर्म की पुन: स्थापना की। लेकिन वे नील गगन में दैदीप्यमान सूर्य के समान दाहक शक्ति से संपन्न ,महासमुद्र की तरह गंभीर तथा पृथ्वी की तरह क्षमाशील भी है।
महाकवि भास कालिदास और भवभूति के राम कुल रक्षक ,आदर्श पुत्र, आदर्श पति, आदर्श पिता और आदर्श प्रजा पालक राजा का चरित्र सामने रखते हैं। कालिदास ने रघुवंश में इक्ष्वाकु वंश का वर्णन किया तो भवभूति ने उत्तर रामचरित्र में अनेक मार्मिक प्रसंग जोड़े। लेकिन तुलसीदास ने राम के चरित्र का कोई प्रसंग नहीं छोड़ा है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि रामकथा को संपूर्णता वास्तव में तुलसीदास ने ही प्रदान की है। रामचरितमानस एक कालजयी रचना है जो भारतीय मनीषा के समस्त लौकिक, पारलौकिक, आध्यात्मिक ,नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को राम के चरित्र में इस तरह जोड़ देती है मानो किसी कुशल शिल्पी ने नगीने जड़ें हों। लेकिन तुलसी के राम विष्णु के अवतार हैं। वे दुराचारियों यज्ञ विध्वंसक राक्षसों का नाश कर लौकिक मर्यादाओं की स्थापना के लिए जन्म लेते हैं । वे सांसारिक प्राणियों को की तरह सुख-दुख का भोग जरूर करते हैं पर जीवन मरण के चक्र से होकर गुजरते हैं और अंततः अपनी पारलौकिक छवि की छाप छोड़ जाते हैं ।
दरअसल,तुलसीदास ने राम के चरित्र के कई प्रसंगों की व्याख्या करते हुए उनके ईश्वरत्व की ओर इशारा किया है। इसका अर्थ यह है कि तुलसी ने राम के चरित्र में दो परस्पर विरोधी और विपरीत धाराओं में समन्वय का प्रयास करते हुए इसे और भव्यता प्रदान करने की कोशिश की है। राम सुख दुख ,पाप पुण्य, धर्म अधर्म, शुभ अशुभ, कर्तव्य अकर्तव्य, ज्ञान विज्ञान, योग भोग, स्थूल सूक्ष्म, जड़ चेतन, माया ब्रह्म, लौकिक पारलौकिक आदि का सर्वत्र समन्वय करते हुए दिखाई देते हैं । इसीलिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम तो है ही मानव चेतना के आदि पुरुष भी हैं। भारत के विभिन्न धार्मिक संप्रदायों और मत मतांतरों के प्रवर्तक संतों ने राम की अलग-अलग कल्पना की है। इनमें हर एक के राम अलग-अलग हैं। तुलसीदास, नाभादास ,गुरु नानक, कबीर आदि के राम अलग हैं। किसी के लिए राम दशरथ पुत्र हैं, तो किसी के लिए सबसे न्यारे हैं। तुलसीदास ने यह भी कहा है कि ‘जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’
लेकिन यहां एक बात रह रह कर मन में कौंधती है कि आखिर यह देश दो अक्षरों के एक राम नाम के पीछे पागलपन की हद तक क्यों पड़ा है ? सुबह बिस्तर से उठते राम! बाहर निकलते ही राम -राम, दिनभर राम नाम की अटूट श्रृंखला। फिर शाम को राम का नाम और जीवन की अंतिम यात्रा भी ‘राम नाम सत्य है’ के साथ। आखिर इसका रहस्य क्या है ? घर में राम, मंदिर में राम, सुख में राम, दुख में राम। शायद यही देखकर अल्लामा इकबाल को भी लिखना पड़ा – है राम के वजूद पर हिंदुस्तान को नाज, अहले वतन समझते हैं, उनको इमाम ए हिंद ।
यहां माता-पिता राम जैसे पुत्र की कामना करते हैं। इस मर्यादावादी देश में राम कहीं भी लौकिक मर्यादाओं का अतिक्रमण करते हुए दिखाई नहीं देते। वे लंका विजय के बाद भी वहां का राज विभीषण को सौंप देते हैं। सीता हरण के प्रसंग में भी वे उद्विग्न नहीं होते। वनवास मिलने पर भी उसी सहजता से स्वीकार करते हैं और पिता की आज्ञा मानकर वन को प्रस्थान करते हैं। उनके मन मैं विमाता कैकयी और भाई भरत के लिए स्नेह बना रहता है । उनका ह्रदय करुणा से ओतप्रोत है। वे जब रावण का वध करते हैं तो पश्चाताप करते हैं। लौकिक जीवन की मर्यादा एवं राज धर्म के निर्माण के लिए धोबी के ताने सुनकर सीता का परित्याग कर देते हैं । उन्हें अपने जीवन की खुशियों से बढ़कर लोकजीवन की चिंता है। राजा के इस आदर्श के कारण ही भारत में रामराज की आज तक कल्पना की जाती है। राम के बिना भारतीय समाज की कल्पना कैसे की जा सकती है?
(संकलित )