रूद्र से शिव तक का सफर -शिव पूजा की प्राचीनता –
शिव रात्रि पर्व पर विशेष
फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। शिव चतुर्दशी तिथि के स्वामी है आता है उनकी रात्रि में व्रत किए जाने से इस व्रत का नाम शिवरात्रि पड़ा। यद्यपि प्रत्येक मास की कृष्ण चतुर्दशी शिवरात्रि होती है किंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के निशीथ ( अर्ध रात्रि) में शिवलिंग का प्रादुर्भाव हुआ था इस कारण यह महाशिवरात्रि मानी जाती है। चतुर्दशी की इस रात्रि के चारों पहर में अलग-अलग विधियों द्वारा भगवान भोलेनाथ की पूजा एवं अभिषेक करने का शास्त्रीय विधान है। हालांकि शिवरात्रि का व्रत इतना जटिल है कि इसे वेद पाठी विद्वान ही यथा विधि संपन्न कर सकते हैं लेकिन यह उतना ही सरल भी है कि विद्वान, अनपढ़, धनी- निर्धन सभी अपनी अपनी सुविधा तथा सामर्थ के अनुसार शिव की पूजा कर सकते हैं ।दयालु आशुतोष भगवान छोटी से छोटी तथा बड़ी से बड़ी सभी पूजा से प्रसन्न होते हैं। शिव पुराण के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा ने इसी दिन रूद्र रूप शिव को उत्पन्न किया था ।
शिव एवं हिमालय की पुत्री पार्वती का विवाह भी इसी दिन हुआ था अतः यह शिव और शक्ति के पूर्ण होने की रात्रि भी है।
शिव एक ही परम तत्व की तीन मूर्तियों (ब्रह्मा विष्णु और शिव )में अंतिम मूर्ति हैं ब्रह्मा का कार्य सृष्टि, विष्णु का कार्य स्थिति (पालन) और शिव का कार्य संहार करना है। परंतु शैव मत के अनुसार शिव ही परम तत्व हैं,उनके कार्यों में संहार के अतिरिक्त सृष्टि और स्थिति के कार्य भी सम्मिलित हैं। शिव परम कारुणिक भी है और उनमें अनुग्रह अथवा प्रसाद तथा तिरोभाव (गोपन और लोपन) की क्रिया भी पाई जाती है ।इस प्रकार उनके पांच प्रकार के कार्य हैं। शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियों या रूपों से यह कार्य किसी न किसी प्रकार से संबद्ध हैं।
इनका उद्देश्य भक्तों का कल्याण करना है। शिव विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक भी माने गए हैं ।संगीत, नृत्य, योग व्याकरण, व्याख्यान , भैषज्य आदि के मूल प्रवर्तक शिव हैं। इनकी कल्पना सब जीव धारियों के स्वामी के रूप में की गई है। इसलिए यह पशुपति, भूपति, भूतनाथ कहलाते हैं। यह सभी देवी देवताओं में श्रेष्ठ माने जाते हैं अत: महेश्वर और महादेव के रूप में पाए जाते हैं । इनमें माया की अनंत शक्ति है अतः यह मायापती भी हैं। उमा के पति होने से इनका एक पर्याय उमापति है। इनके अनेक विरूद या पर्याय हैं। महाभारत में इसकी एक लंबी सहस्त्रनाम सूची दी हुई है।
रूद्र से शिव तक का सफर
शिव की कल्पना की उत्पत्ति और विकास का क्रम वैदिक साहित्य से ही मिलना प्रारंभ हो जाता है। ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में ही शिव की अनेक विशेषताओं और उससे जुड़ी पौराणिक गाथाओं के मूल का समावेश है । इसी प्रकार शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता संहिता (अध्याय 16) में जो शत रुद्री पाठ है उसमें शिव का मूल रूप दिखाई देता है। उसमें शिव को गिरीश यानी पर्वत पर रहने वाला,पशु चर्म धारण करने वाला (कृतिवास) तथा जटाजूट रखने वाला (कपर्दी) कहा गया है। अथर्ववेद में रूद्र की बड़ी महिमा बताई गई है और उनके लिए भव , शर्व, रुद्र ,पशुपति, उग्र, महादेव और ईशान जैसे नामों का प्रयोग किया गया है। सिंधु घाटी के उत्खनन से जो धार्मिक वस्तुएं प्राप्त हुई हैं उसमें योगी शिव की भी एक प्रतिकृति है। उत्तर वैदिक साहित्य में शिव रूद्र के पर्याय के रूप में मिलने लगते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद में रुद्र के अनेक नामों में शिवएक है । शांखायन, कौषीतकि आदि ब्राह्मणों ग्रंथो में रुद्र के शिव, महादेव, महेश्वर ईशान आदि नाम मिलते हैं। शतपथ और कौषीतकि ब्राह्मण ब्राह्मण ग्रंथों में रुद्र का एक अन्य विरुद अशनि भी पाया जाता है। इन आठ विरूदों में से रुद्र, शर्व, उग्र तथा अशनि घोर (भयंकर) रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसी प्रकार भव, पशुपति, महादेव, और ईशान उनके सौम्य (सुन्दर) रूप का। यजुर्वेद में उनके मांगलिक विरुद शंभु और शंकर का भी उल्लेख है।
शिव की पूजा का विकास किस क्रम में हुआ यह बतलाना कठिन है। किंतु यह निश्चित है कि ईसा पूर्व में ही शैव संप्रदाय का उदय हुआ था। पाणिनी ने अष्टाध्यायी(4.1.115) में शिव उपासकों (शैवों) का उल्लेख किया है।
शैवमत का मूल रूप ऋग्वेद में रुद्र की कल्पना में मिलता है रुद्र के भयंकर रूप की अभिव्यक्ति वर्षा पूर्व झंझावात के रूप में होती थी रूद्र के उपवास को ने अनुभव किया कि झंझावात के पश्चात जगत को जीवन प्रदान करने वाला शीतल जल बरसता है और उसके पश्चात एक गंभीर शांति और आनंद का वातावरण निर्मित हो जाता है अतः रुद्र का ही दूसरा स्वरूप शिव जनमानस में शुरू हो गया शिव के 3 नाम शंभू, शंकर और शिव प्रसिद्ध हुए इन्हीं नामों से उनकी प्रशंसा और प्रार्थना होने लगी
पतंजलि ने महाभाष्य में रुद्र और शिव का उल्लेख किया है। महाभाष्य में यह भी कहा गया है कि शिवभागवत अय:शूल (लोहे का त्रिशूल) और दंड अजिन धारण करते थे। पुराणों में (विशेषत: शैव पुराणों में) शिव का विस्तृत वर्णन और शिव तत्व का विवेचन पाया जाता है। संस्कृत साहित्य और अभिलेखों में शिव की स्तुतियां भरी पड़ी हैं।
शिव के रूप
पुराणों पुराणों और उसके बाद के साहित्य में शिव की कल्पना योगीराज के रूप में की गई है उनका निवास स्थान कैलाश पर्वत है व्याघ्र चर्म (बाघम्बर) पर बैठते हैं ध्यान में मग्न रहते हैं वे अपने ध्यान और तपोबल से जगत को धारण करते हैं उनके सिर पर जटा जूट है जिसमें द्वितीय का नवचंद्र जड़ित है।
इसी जटा से जगत्पावनी गंगा प्रवाहित होती है। ललाट के मध्य में उनका तीसरा नेत्र है, जो अंतर्दृष्टि और ज्ञान का प्रतीक है ,यह प्रलयंकर भी है। इसी से शिव ने काम का दहन किया था। शिव का कंठ नीला है इसलिए मैं नीलकंठ कहलाते हैं समुद्र मंथन में जो विष निकला था उसका पान करके उन्होंने विश्व को बचा लिया था उनके कंठ और भुजाओं में सर्प लिपटे रहते हैं ।वह अपने संपूर्ण शरीर पर भस्म और हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं उनके वामंग में पार्वती विराजमान रहती हैंऔर उनके सामने उनका वाहन नंदी। वे अपने गणों से घिरे रहते हैं। योगीराज के अतिरिक्त नटराज के रूप में भी शिव की कल्पना हुई है वे नाट्य और संगीत के भी अधिक अधिष्ठाता हैं। एक सौ आठ प्रकार के नाटकों की उत्पत्ति शिव से मानी जाती है जिसमें लास्य और तांडव दोनों ही सम्मिलित हैं। दक्षिणामूर्ति के रूप में भी शिव की कल्पना हुई है यह शिव के जगद्गुरूत्व का स्वरूप है । इस रूप में वे व्याख्यान अथवा तर्क की मुद्रा में अंकित किए जाते हैं। मूर्त रूप के अतिरिक्त अमूर्त अथवा प्रतीक रूप में भी शिव की भावना की गई है इसके प्रतीक को लिंग कहते हैं जो उनके निश्चल ज्ञान और तेज का प्रतिनिधित्व करता है। पुराणों में शिव के अनेक अवतारों का वर्णन है लगता है विष्णु के अवतारों की पद्धति पर यह कल्पना की गई है। प्राय: दुष्टों के विनाश तथा भक्तों की परीक्षा आदि के लिए शिव अवतार धारण करते हैं। शिव पार्वती के विवाह की कथा संस्कृत साहित्य और लोक साहित्य में बहुत प्रचलित है ।
शिव के भयंकर रूप की कल्पना भी की जाती है पाई जाती है जिसका संबंध उनके विध्वंसक रूप से है । वे शमशान रण क्षेत्र चौराहों (दुर्घटना स्थल) में निवास करते हैं। मुंडमाला धारण करते हैं भूत प्रेत और गणों से घिरे रहते हैं ।वह स्वयं महाकाल( मृत्यु तथा उसके भी काल) हैं जिसके द्वारा महा प्रलय घटित होता है ।
उनका एक अर्धनारीश्वर रूप है जिसमें शिव और शक्ति के युग्म की कल्पना है इसी प्रकार हरिहर रूप में शिव और विष्णु के समन्वित रूप का भी अंकन है।