प्रकृति के उपहारों से खाली होती जा रही दुनिया
सुधांशु मिश्र
प्रकृति खतरे में है,डायनासोर युग का अंत होने के बाद प्रकृति को अब तक के सबसे बड़े स्तर पर क्षति पहुंच रही है। दक्षिण आस्ट्रेलिया की फ्लैंडर्स यूनिवर्सिटी और यूरोपीय आयोग की टीम ने हाल ही में किए शोध ने बताया कि दुनिया में जलवायु और जमीन के उपयोग में तेजी से हो रहे बदलाव के चलते 2100 तक दुनिया की की एक चौथाई से अधिक जैव विविधता का सफाया हो जाएगा । विडंबना यह है कि आपस में जुड़ी प्रजातियों के इस नुकसान को टाला नहीं जा सकता ।
शोध के मुताबिक 2050 तक धरती 6 से 10% तक जानवर और वनस्पतियों को खो देगी सदी के अंत की आंकड़ा 27% तक पहुंच जाएगा। विश्लेषण यह भी बताता है कि अब तक पृथ्वी जैव विविधता पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करके आंका गया है और यदि सुधार नहीं किए तो हम धरती पर जीवन को बचाए रखने वाली महत्वपूर्ण चीजों को खो देंगे ।
शोध में सुपर कंप्यूटर का इस्तेमाल
एक दूसरे से आपस में जुड़ी प्रजातियों का भविष्य जानने के लिए अध्ययन में सबसे शक्तिशाली सुपर कंप्यूटर का इस्तेमाल किया गया। सुपर कंप्यूटर की मदद से वैज्ञानिकों ने आभासी प्रजातियों और 15000 से ज्यादा खाद्य जालों के साथ नकली धरती का निर्माण किया इस धरती पर जलवायु और भूमि उपयोग में बदलाव किए गए कंप्यूटर मॉडलिंग में पाया गया कि जैसे ही जलवायु परिवर्तन हुआ आभासी प्रजातियों ने अपने स्थान बदल दिए कुछ नए परिवर्तनों को स्वीकार किया तो कुछ विलुप्त हो गई।
दुनिया भर में जैवविविधता पर तेज होता खतरा
द इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडाइवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज- आईपीबीईएस का अनुमान है कि दुनिया भर में कम से कम 80 लाख प्रजातियां मौजूद हैं. लेकिन उसने आगाह किया है कि 2030 तक करीब 10 लाख प्रजातियां गायब हो सकती हैं. जैवविविधता क्षरण की दर खतरे के निशान पर पहुंच चुकी है- हर 10 मिनट में औसतन एक प्रजाति खत्म हो रही है. शोधकर्ताओं के मुताबिक, हम लोग दुनिया की छठी सामूहिक विलुप्ति के बीचोबीच पहुंच गए हैं.
मनुष्य ने धरती और इसके प्राकृतिक संसाधनों पर अपना एकाधिकार मान लिया है जिसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का बेहताशा दोहन ,श्रीकरं ,जंगलों की अंधाधुंध कटाई, औद्योगिकरन,और शिकार से जैव विविधता के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है . मनुष्य के अतिरिक्त धरती पर मौजूद सभी जीवित इकाइयाँ प्रकृति को बहुत कम नुकसान पहुंचाती है.
जलवायु परिवर्तन के कारण तेजी से बढ़ रही गर्मी ने जैव विविधता पर बहुत बुरा असर डाला है .अमेरिकी एजेंसी नासा ने अपने अध्यन में पाया है की मौसमी बदलाव की वजह से धरती के 65 फीसदी कीट अगली सदी तक विलुप्त हो जाएंगें. जलवायु परिवर्तन ने हमारे पारिस्थितिकी तंत (ईको सिस्टम) को गड़बड़ा दिया है,धीरे धीरे पेड़ पोधे पशु पक्षी गायब होते जा रहे हैं ,आज हमें आसपास गौरैया जैसी घरेलू चिड़िया नजर आना कम हो गयी हैं ,तितलियाँ,मधुमक्खियाँ ,सहित जाने पहचाने कीट पतंगें देखने को तरस गये हैं .
आंकड़े और तथ्य चिंतित करने और डराने वाले हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि हर प्रजाति किसी न किसी रूप में एक दूसरे पर निर्भर है ।ग्लोबल वार्मिंग के कारण शिकारी प्रजाति शिकार हो रही है या नुकसान प्राथमिक विलुप्तीकरण है, शिकारी प्रजाति के लिए भोजन का संकट कराया तो एक समय बाद विलुप्त हो जाएगी।
दुनिया भर में है चिंता ?
7 दिसंबर से 19 दिसंबर 2022 तक जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र संघ का एक महत्वपूर्ण सम्मेलन कॉप 15 (cop15) कनाडा के मांट्रियल शहर में संपन्न हुआ। जहां 200 देशों के प्रतिनिधियों ने मानवीय गतिविधियों के कारण प्रकृति के चिंताजनक विनाश को रोकने के लिए लक्ष्य स्थापित करने पर चर्चा की । सम्मेलन में यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने चेतावनी दी है कि प्रकृति के बिना हमारे पास कुछ भी नहीं है। उन्होंने कहा कि जंगलों की कटाई मरुस्थलीकरण रसायन और कीटनाशकों के दुरुपयोग से हमारी धरती क्षरण की शिकार हुई है और बढ़ती विश्व आबादी के लिए भोजन जुटाना कठिन होता जा रहा है मानवता सामूहिक विनाश का हथियार बन गई है।
इस सम्मेलन में नया वैश्विक जैव विविधता फ्रेमवर्क पारित किया गया और एक ऐतिहासिक समझौता हुआ,जिसमे 2030 तक जैव विविधता के लिए महत्वपूर्ण मानी जाने वाली 30 फीसदी भूमि और जल का संरक्षण किया जाएगा ,वर्तमान में 17 फीसदी भूमि व् 10 प्रतिशत समुद्री क्षेत्र का संरक्षण किया गया है. समझौते में लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण ,जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और प्रदूषण की कम करने के प्रयासों को गति देने की बात कही गई है .मसौदे में 2030 तक जैव विवधता के लिए 200 अरब डॉलर जुटाने और सब्सिडी को चरण बद्ध तरीके से खत्म का कम किया जायेगा . समझौते के तहत गरीब देशों के लिए सालाना वित्तीय मदद को 2025 तक बढाकर 20 अरब डॉलर किया जाएगा,जो 2030 तक बढ़कर 30अरब डालर सालाना हो जाएगी . यह बात ध्यान देने की है कि सम्मेलन में भारत ने ही जैव विविधता संरक्षण के लिए नया और समर्पित कोष बनाए जाने की तत्काल जरूरत पर जोर दिया था ,भारत का कहना था कि जैव विविधता के संरक्षण के लक्ष्यों को लागू करने का बोझ ज्यादा विकासशील देशों पर पड़ता है .
जैवविविधता रक्षा के लिये तीन उपाय
इस सम्मेलन में यूएन महासचिव ने प्रकृति की रक्षा सुनिश्चित करने के लिये तीन अहम उपायों पर बल दिया है.
पहला, उन राष्ट्रीय योजनाओं लिये सब्सिडी और टैक्स में छूट को ख़त्म किया जाए, जिनमें प्रकृति को क्षति पहुँचाने वाली गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है . इसके बजाय, हरित समाधानों जैसे कि नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन, प्लास्टिक के इस्तेमाल को घटाने, प्रकृति-अनुकूल खाद्य उत्पादन और संसाधनों के टिकाऊ दोहन की ओर बढ़ना होगा.इन योजनाओं में आदिवासी आबादी व स्थानीय समुदायों के अधिकारों को मान्यता दी जाएगी, जोकि प्रकृति के संरक्षक हैं.
दूसरा, निजी सैक्टर को मुनाफ़ा और संरक्षण को एक साथ लेकर चलने की रणनीति पर काम करना होगा होगा, और खाद्य व कृषि उद्योग को सतत उत्पादन, कीटनाशक नियंत्रण,परागण के प्राकृतिक रास्तों पर ध्यान देना होगा.
यूएन के शीर्षतम अधिकारी ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि वे अपने बैंक खाते भर रहे हैं जबकि दुनिया प्रकृति के उपहारों से खाली होती जा रही है .
उन्होंने हरित लीपापोती की प्रवृत्ति की आलोचना की, जिसके ज़रिये कम्पनियाँ प्रकृति संरक्षण के लिये बड़े-बड़े दावे करती हैं, और कहा कि निजी सैक्टर की उसके क़दमों के लिये जवाबदेही तय की जानी होगी.
तीसरा, विकसित देशों को वैश्विक दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित देशों को साहसिक वित्तीय पोषण प्रदान करना होगा, चूँकि उनके अनुसार, यह बोझ केवल विकासशील देशों के कन्धों पर नहीं छोड़ा जा सकता है.
अमेरिका के कंजर्वेशन इंटरनेशनल में जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता वैज्ञानिक डेव होले का कहना है कि कुदरत हमें जो देती है उसी से हमारा अस्तित्व है, पर हम उसकी बिलकुल प्रवाह नही कर रहे हैं, वे कहते है कि सुबह सुबह जब प्लेट में अनाज से बना खाना हमारे सामने होता है तो हम यह नहीं सोचते कि प्रकृति ने इन फसलों को उगाने में कितनी है जिसकी बदौलत यह अन्न तैयार हुआ है ,रोजमर्रा के स्टार पर कुदरत जो हमारे लिए कर रही है वह हमें दिखता ही नहीं .
पर पर्यावरण की चिंता और उन पर काम करने वाले विशेषज्ञ और पर्यावरणविद इस तरह के अंतरराष्ट्रीय (कांफ्रेंस/सेमीनार) को बहुत अधिक सार्थक नहीं मानते ,उनका मानना है कि इस तरह के लक्ष्य कई बार निर्धारित हो चुके हैं पर कुछ सार्थक नहीं निकला ,उदाहरण के लिए 80 के दशक में यूनाइटेड नेशन में मेनएंड बायोस्फियर नाम की योजना चलाई थी ,जिसे वन्य जीवों और पेड़ पोधों को बचाने और संरक्षित रखने के लिए महत्वपूर्ण कदम बताया गया था ,दुनिया भर में कई बायोस्फियर पार्क ,सेंचुरी और नेशनल पार्क इसके तहत बने ,पर अपेक्षित परिणाम नही आ सके .
प्रकृति की बरबादी रोकने के लिए इस तरह के बड़े-बड़े समझोते या लक्ष्य उतने कारगर नहीं होंगें जितने की देशीय या स्थानीय स्तर के उपाय . सिर्फ आर्थिक मदद या बड़े प्रोजेक्ट से किसी देश की जैव विविधता को नहीं बचाया जा सकता . भारत के पर्यावरण को सुधारने के लिए अमेरिका में बात नहीं की जा सकती . भारत को अपने उपाय खोजने होगें ,
पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरण विद डॉ अनिल प्रकाश जोशी ने पिछले दिनों एक लेख में लिखा था कि “अगर कहीं कोई समाधान छुपा है तो वो अपने देश में बाकी बचे जंगलों ,तालाबों ,नदियों के संरक्षण से ही सम्भव है . यह भी जानना आवश्यक है कि जितना ज्यादा पानी होगा ,जितना ज्यादा वन होगें ,बेहतर मिट्टी होगी ,ये स्वयं भी जलवायु परिवर्तन में और तापक्रम स्थिर करने में बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं .यह सवाल इसलिए बार-बार है की हम इस तरह की अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों से क्या पा रहे हैं ? और पिछले लगातार दशकों से होने वाली गोष्ठियों किस बेहतर परिणाम की तरफ हमें ले जा चुकी हैं? क्योंकि प्रकृति और पारिस्थितिकी दुनिया भर अगर लगातार गिरती चली जा रही हो तो सवाल इस तरह के अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों के प्रति खड़ा होना ही चाहिए .प्रकृति को बचाना है तो अपनी प्रवृति को पहले सुधारना होगा .हमें अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाना चाहिए विलासिताओं को त्याग कर ही शायद हम प्रकृति संरक्ष्ण के बड़े वाहक बन सकते हैं .
यदि हमें अपना अस्तित्व बचाना है तो हमें जैव विविधता को बनाये रखना होगा ,क्योंकि जैव विविधता के क्षरण का सीधा असर हमारे भोजन तंत्र पर पड़ेगा ,वह तहस नहस हो सकता है.अब हमें इसका दोहन रोकना होगा और प्रभावी संरक्षण करना होगा . ,समय रहते मनुष्य ने प्रभावी कदम नहीं उठाये तो हमारे पास पछताने के सिवाय कुछ नहीं रहा जाएगा .