नास्तिक भगत सिंह के सियासी भगत ?

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बलिदान दिवस 23 मार्च पर विशेष

23 मार्च भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत का दिवस है । इनमें भगत सिंह को एक क्रांतिकारी नायक के तौर पर सबसे ज्यादा याद किया जाता है। पिछले कुछ सालों से भगत सिंह को याद करने में एक तरह की राजनीति देखी जा रही है। भगत सिंह को अपना बताने की होड़ सी मच गई है । भगत सिंह के सियासी दावेदार या “भगतों” का उनके विचारों से कोई लेना देना नहीं है, वे उनके विचारों पर कोई बात नहीं करते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो लोग उन्हें आज अपना हीरो बता रहे हैं इतिहास इस बात का गवाह है कि व्यवहारिक और राजनीतिक तौर पर उनके विचारों सपनों के हत्यारे रहे हैं।

 सेंट्रल लेजिसलेटिव असेंबली में बम फेंकने के बाद जब भगत सिंह गिरफ्तार हुए थे तो रिपोर्ट में उन्हें समाजवादी क्रांतिकारी कहा गया था पर वामपंथी उस वक्त उन्हें अपना बताने से बचते रहे ,क्योंकि वह उनकी पार्टी के सदस्य नहीं थे। आज वे भी उनको अपना बताते हैं। वामपंथियों पर आरोप रहा है कि 1942 में उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया था, अब शायद उन्हें लगा कि भगत सिंह का इस्तेमाल करके अपने को राष्ट्रवादी साबित कर सकते हैं ।

जहां तक संघ परिवार का संबंध है उनकी भी आजादी के आंदोलन में भूमिका सदैव ही विवादों में रही है। समाजवाद से वैचारिक नफरत करने वाले दक्षिणपंथी आज भगत सिंह और उनके साथियों को ‘भारत माता की जय’ बोल कर फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले राष्ट्रवादी देशभक्त के रूप में याद और महिमामंडित करना चाहता है, जबकि वास्तविकता यह है कि मुकदमे के दौरान अदालत में ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद”इंकलाब जिंदाबाद’ ‘ सर्वहारा जिंदाबाद ‘ के नारे गूंजते थे ।फांसी के दौरान भी यही नारे उन्होंने लगाए थे। 

यहां तक की तस्वीर में भी उनकी छवि बदलने की कोशिश की गई है ।भगत सिंह की ज्यादातर तस्वीरें फेल्ट वाली हैं पर अब उन्हें पगड़ी पहना दी जाती है गले में एक रंग विशेष का गमछा डाल दिया जाता है । वैसे संघ परिवार अपनी सियासत के चलते  गांधी, अंबेडकर, सरदार पटेल  तक पर अपना दावा पेश करता रहा है वैसे ही भगत सिंह और उनके क्रांतिकारियों पर भी अपना दावा पेश कर उनकी बलिदानी और बहादुर छवि को भुनाने की कोशिश करते नजर आता है। युवाओं को बहादुरी के चलते भगत सिंह ज्यादा लुभाते हैं, इस तरह एक बहादुर नायक को वह अपने से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

इस सियासी छीना झपटी में भगत सिंह और उनके साथियों का दर्शन और वैचारिक पहलू भुला दिया गया है। सवाल यह है कि आज यदि भगत सिंह होते तो मौजूदा राजनीति और परिस्थितियों पर उनका रूप क्या होता? 

वे मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित थे। वे धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी थे। सांप्रदायिकता को वे उपनिवेशवाद के समान खतरनाक मानते थे। शोषण विहीन समानता आधारित समाज के स्वप्न दृष्टा थे।

वैचारिक रूप से भगत सिंह और उनके साथियों ने क्रांति को व्यापक ढंग से परिभाषित किया । उनकी क्रांति का अर्थ महज हिंसा या लड़ाकूपन नहीं था । उनका लक्ष्य साम्राज्यवाद की जड़ें उखाड़ कर राष्ट्रीय मुक्ति था । वे ऐसे समाज की स्थापना के पक्षधर थे ,जहां व्यक्ति का व्यक्ति के द्वारा शोषण ना हो।

 असेंबली बम कांड में भगत सिंह ने अदालत में कहा था क्रांति के लिए रक्तरंजित संघर्ष जरूरी नहीं है, व्यक्तिगत बैर की इसमें कोई जगह नहीं है। यह बम या पिस्तौल की उपासना नहीं है। क्रांति से हमारा तात्पर्य है कि अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था समाप्त होनी चाहिए।भगत सिंह ने जेल से युवकों से अपील की थी कि वे क्रांतिकारी आतंकवाद का रास्ता छोड़ दें .

इस सवाल पर कि फिर क्यों भगत सिंह और उनके साथी व्यक्तिगत उग्रवादी कार्रवाइयां करते थे? इसका ज़बाब  इतिहासकार बिपन चंद्र ने कुछ इस तरह से दिया है कि भगत सिंह और उनके साथी अपने वैचारिक लक्ष्य को कुछ सालो में ही हासिल करना चाहते थे, उन्हे लगता था कि उनकी धीमी बौद्धिक और राजनीतिक गतिविधियां तो कांग्रेस की राजनीतिक गतिविधियों जैसी ही हैं। वे कांग्रेस की तुलना में अपने को ज्यादा तेज करना चाहते थे इसके लिए उनके पास विकल्प क्या था? उन्हें लगता था कि बलिदान देकर ही युवकों को आंदोलित किया जा सकता है। उनका मानना था कि कुछ चमत्कारिक एवं बहादुरी की कार्यवाइयां उनके प्रचार तथा अदालतों में अपने बयानों के माध्यम से राजनीतिक विचारधारा और कार्यक्रमों के प्रचार से ही जन क्रांतिकारी दल के लिए कैडर तैयार किए जा सकेंगे।

भगत सिंह एक धर्मनिरपेक्ष क्रांतिकारी थे। वे राष्ट्र और राष्ट्रीय आंदोलन के सम्मुख मौजूद सांप्रदायिकता के खतरे को पहचानते थे। वे अपने साथियों से बराबर कहा करते थे कि सांप्रदायिकता उतनी ही खतरनाक है जितना उपनिवेशवाद। यहां तक कि इस मुद्दे पर उन्होंने लाला लाजपत राय के विरुद्ध राजनीतिक वैचारिक आंदोलन छेड़ दिया था। 1926 में बनाई गई संस्था ‘नौजवान भारत सभा’ जो क्रांतिकारियों का खुला संगठन था  के 6 नियम जिन्हें भगतसिंह  ने ही तैयार किया था , में  से 2 नियम यह थे कि ऐसी किसी संस्था संगठन या पार्टी से किसी भी तरह का संपर्क ना रखना जो सांप्रदायिकता का प्रचार करती हो और धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते हुए जनता के बीच एक-दूसरे के प्रति सहनशीलता की भावना पैदा करना और इस पर दृढ़ता के काम करना ।

भगत सिंह धर्म और अंधविश्वास की जकड़न से समाज को मुक्त करने पर जोर देते थे। अपनी मौत से कुछ पहले उन्होंने एक प्रसिद्ध और चर्चित लेख लिखा था “मैं नास्तिक क्यों हूं” उसमें उन्होंने धर्म और धर्म दर्शन की खूब आलोचना की थी। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे सिख धर्म में उनकी आस्था खत्म हो गई और अंत में भगवान के अस्तित्व में भी उनकी आस्था नहीं रही । उन्हीं के शब्दों में प्रगति के लिए संघर्ष ही किसी भी व्यक्ति को अंधविश्वास की आलोचना करनी ही होगी और पुरातन पंथी विचारों को चुनौती देनी ही होगी प्रचलित विश्वासों की हर एक कड़ी की प्रासंगिकता और सत्यता  को परखना ही होगा।

बिपन चंद्र के मुताबिक राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में भगत सिंह और उनके साथियों का योगदान अमूल्य है  उनका अनन्य राष्ट्र प्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धताऔर गौरवमय बलिदान भारतीय जनता के ल प्रेरणा स्रोत बने। उन्होंने देश में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया उत्तर भारत में समाजवादी विचारधारा के प्रचार प्रसार में उनका योगदान अमूल्य और अतुलनीय है।

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