जेन जी के खामोश सफर का आग़ाज़ …?कुछ न करना’ अब बन रहा है स्टाइल
नई दिल्ली// आजकल आप जब भी ट्रेन, बस या मेट्रो में यात्रा कर रहे होते हैं तो आपके अगल-बगल में हर कोई फोन में डूबा हुआ होता है, रील देख रहा होता है,गाना सुन रहा होता है…इक्का दुक्का किताब पढ़ते भी दिख जाते हैं। यह आपके लिए स्वाभाविक दृश्य है.. पर अचानक आप देखते है कि एक युवा कुछ नहीं कर रहा है …चुपचाप खिड़की के बाहर देख रहा है या आसपास बैठे लोगों को देख रहा है, आपकी तरफ देखकर मुस्कुरा रहा है… है ना अजीब सा… पर अब यह दृश्य दिखाई देने लगे हैं। इस अनोखे व्यवहार को नई युवा पीढ़ी जिसे जेन जी कहा जा रहा है ने नाम दिया है ‘बेयरबैंकिंग कम्यूट’ !
क्या है ‘बेयरबैकिंग कम्यूट’
यह शब्द ऑस्ट्रेलिया से आया है, लेकिन भारतीय युवा भी इसे धीरे-धीरे अपनाने लगे हैं।
इस शब्द के मायने हैं कि -ऑफिस या काम पर जाते वक्त ट्रेन, मेट्रो, बस में बैठकर ‘कुछ भी न करना’। न कोई मोबाइल चलाना, न म्यूजिक सुनना, न किताब पढ़ना। बस खुद के साथ वक्त बिताना। यह धीरे धीरे एक ट्रेंड बनता जा रहा है।
क्या है इसके पीछे की फिलासफी..?
आजकल की नौकरी में सबसे बड़ा तनाव है वर्क-लाइफ बैलेंस। सब कुछ 24×7 चलता है। बॉस की मेल, वॉट्सऐप ग्रुप, कॉल मीटिंग, क्लाइंट के मैसेज। ऐसे में मोबाइल बंद करना ही अपने दिमाग को थोड़ी देर के लिए ‘ऑफलाइन’ करने जैसा है।
करियर कोच अमांडा ऑगस्टीन का कहना है कि ये ट्रेंड महामारी के बाद बढ़ा है, जब लोग वापस ऑफिस लौटने लगे हैं। वे कहती हैं, ‘जब ऑफिस में ही टाइम से रिपोर्ट करना है, तो कम्यूट के दौरान काम क्यों करें?’ यानी ट्रेन में मेल चेक करना अब जरूरी नहीं रहा।
भारत में क्या ये मुमकिन है…?
बिलकुल। कई युवा जानबूझकर ‘स्क्रीन से दूरी बना रहे हैं। विशेष रूप से महानगरों में। वैसे यह सवाल भी पूछा जा रहा है कि
भारत में, जहां ट्रेन और मेट्रो में पैर रखने की भी जगह मुश्किल से मिलती है, वहां कोई चुपचाप बैठ सकता है ? युवा मानते हैं कि यह संभव है। देश की राजधानी की ऐसी ही एक युवा जो रोज बस से ऑफिस जाती हैं कहती हैं कि ‘सुबह ऑफिस जाने से पहले मोबाइल पर इंस्टाग्राम देखना मुझे थका देता है। अब मैं बस खिड़की से बाहर देखती हूं।’
वैसे कुछ लोग इस बात से भी इत्तेफाक रखते हैं मेट्रो या ट्रेन में लगातार घूरते हुए कोई बैठे रहे, तो असहज लगना स्वाभाविक है।
बदल रहा है सोच…?
42 प्रतिशत जेन जी कर्मचारी कहते हैं कि वे बेरोज़गारी को चुन लेंगे अगर नौकरी खुशी नहीं दें।
51 प्रतिशत कहते हैं, अगर काम उन्हें जिंदगी जीने से रोके, तो वे नौकरी छोड़ देंगे।
62 प्रतिशत ने कहा कि अगर किसी जगह अपनापन नहीं लगे, तो वहां नहीं टिकेंगे।