आजादी की अज्ञात सेनानी – “वीरांगना फूलकुंवरि देवी”

0 185

हेमन्तिका शुक्ला

महाकौशल का इतिहास  गौंड राजवंश के इतिहास के बिना अधूरा है, लगभग तीन शताब्दियों तक गौंड राजाओं ने इस दुर्गम क्षेत्र पर शासन किया था। यह राजवंश “गढ़ा मंडला के गौंड राजवंश” के नाम से इतिहास में जाना जाता है। वैसे तो कई प्रतापी और योग्य राजा इस इस राजवंश में हुए पर सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली वीरांगना रानी दुर्गावती को, जिन्होंने मुगलों से लोहा लिया और आत्मोसर्ग कर इतिहास में अमर हो गईं। उनके बलिदान की गाथा को सब जानते हैं पर आगे चलकर इसी वंश के अंतिम राजा शंकर शाह की विधवा रानी फूलकुंवरि देवी ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का परचम उठाया था और अपनी पूर्वजा की तरह आत्म बलिदान  दिया।

आजादी के महासमर में सैकड़ों ऐसी विभूतियां हैं जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर तो किया परंतु इतिहास में अपना उचित स्थान नहीं प्राप्त कर पाये,अंग्रेजी राज्य और शासन में इन छोटे-छोटे राजाओं का इतिहास एवं शहादत विलुप्त कर दी गई । कालान्तर में भारतीय इतिहास की पुर्नसमीक्षा में ऐसे अनेकों नाम और घटनाएं ज्ञात होती है जिनमें छोटे स्तर पर ही सही स्वतंत्रता के लिये अपने जीवन का त्याग किया गया है।

मण्डला जिले में रानी फूलकुंवरि देवी ऐसी ही वीरांगना स्त्री हैं जिन्होंने अपने पति की मृत्यु के उपरांत अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया था और अपनी पूर्वज रानी दुर्गावती की शहादत का अनुसरण किया था। फुलकुंवरि गौंड राजवंश के अंतिम राजा शंकरशाह की पत्नि थी।
सन् 1857 में मध्य भारत में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के द्वारा चलाई गई संतानहीन राजाओं के राज्य पर अधिकार कर लेने की नीति का विरोध किया था। जिससे देश में अन्य राजा भी आक्रोशित थे ।इसी नीति का आश्रय लेकर सन् 1840 में गौंड राजवंश में उत्तराधिकार विवाद की आड़ में नर्मदावक्श को गौड राज्य का उत्तराधिकारी मान लिया गया था तब राजा शंकरशाह अपने पुत्र रघुनाथशाह के साथ जबलपुर चले गये एवं वहां 52 वीं अंग्रेजी बटालियन, जिसमें ज्यादातर सैनिक भारतीय एवं स्थानीय थे, के साथ मिलकर विद्रोह की रूपरेखा तैयार कर रहे थे। जिसकी सूचना उन्ही के किसी गद्दार साथी द्वारा अंग्रेज कमांडर को दे दी गई थी। फलस्वरूप 14 सितम्बर 1857 को राजा शंकरशाह एवं उनके पुत्र रघुनाथशाह को उनके 13 साथियों के साथ गिरफ्‌तार कर लिया गया था। 3 सदस्यीय कमीशन के द्वारा 16 सितम्बर को उनके विरूद्ध मुकदमा प्रारंभ हुआ और अल्प कार्यवाही के पश्चात् 18 सितम्बर 1857 को दोनों पिता-पुत्र को तोप के मुंह से बांधकर मृत्युदंड स्वरूप बारूद से उड़ा दिया गया।
गौंड राजवंश के दोनों राजाओं के इस प्रकार के अपमान से क्षेत्रीय राजा-रजवाड़े, जमीदार, मालगुजार अत्यन्त आकोशित हो उठे पर वे प्रत्यक्ष विरोध करने की स्थिति में नहीं थे। अपने पति एवं पुत्र के अंतिम संस्कार से निवृत्त होकर रानी ने शहपुरा के ठाकुरों से मंत्रणा की एवं विधवा रानी के नेतृत्व में शहपुरा एवं सोहागपुर के ठाकुरों ने विद्रोह के लिये कमर कस ली। सभी ने मंडला किले को अपने अधिकार में लेने के लिये नारायणगंज होते हुए मंडला की ओर प्रस्थान किया। 26 अक्टूबर 1857 से 23 नवम्बर 1857 तक मंडला एवं खैरी (वर्तमान शहर का एक भाग) के मध्य जमकर युद्ध हुआ और अंग्रेजी सेना को पीछे हटना पड़ा। अंग्रेज सैन्य अधिकारी वाडिंगटन मंडला छोड़कर भाग गया। 2 माह पश्चात पुनः सैन्य बल लेकर वह मण्डला पहुंचा। घुघरी पर विजय पाने के बाद मण्डला के निकट लालीपुर (वर्तमान में मण्डला शहर का व्यस्ततम चौराहा) में फूलकुंवरि की अंग्रेज सेना से मुठभेड़ हुई जिसमें दो अंग्रेज अधिकारियों की मृत्यु हो गई।
20 मार्च 1858 तक क्रांतिकारी अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ करते रहे पर 20 मार्च को वे परास्त हो गये शंकरशाह की विधवा पत्नि फूलकुंवरि देवी ने युद्ध क्षेत्र में ही अपनी पूर्वजा रानी दुर्गावती के समान  ही कटार मारकर अपना बलिदान दे दिया और अमर हो गई। जब शंकरशाह की विधवा पत्नि अपने पति एवं पुत्र की शहादत का बदला लेते हुए स्वयं शहीद हो गई तो इसके पश्चात इस क्षेत्र में रामगढ़ की रानी अवंतिबाई ने कांतिकारियों का नेतृत्व किया।
(लेखिका इतिहास विशेषज्ञ हैं। वे मंडला जिले में संग्राध्यक्ष रह चुकी है)

Leave A Reply

Your email address will not be published.