जब जिले में चना 1रूपये का साठ सेर और गेहूं 50 सेर मिलता था।
इटारसी // आज महंगाई के चर्चे चारों ओर हैं, आम आदमी महंगाई से परेशान हैं, अनाज के दाम आसमान पर हैं। पर क्या आप जानते हैं कि करीब दो सौ साल पहले 1826-30 के आसपास होशंगाबाद जिले (अब नर्मदा पुरम ) जिसमें नरसिंहपुर से लेकर हरदा जिले तक का क्षेत्र शामिल था, में अनाज की क्या कीमत थी? उसकी आज कल्पना नहीं की जा सकती।
आइए जानते हैं नर्मदापुरम जिले में दो शताब्दी में हुई अनाजों की कीमतों के उतार चढ़ाव की रोचक दास्तान…!
उन दिनों के रिकॉर्ड से अनाज की कीमतों का रोचक विवरण सामने आता है । यह भी पता चलता है कि बाद में आकाल और अन्य स्थानीय कारणों से कैसे धीरे-धीरे कीमत बढ़ती गईं।
जिले में 1830 तक गेहूं ₹ 1 का 50 सेर था (सेर यानी आज के 1 किलो ग्राम से कुछ ज्यादा) तो चना ₹1 में 60 सेर से ज्यादा मिलता था। 1832 में इलाक़े की फसलों पर गेरुआ रोग का प्रकोप हो गया तो कीमतों में एकदम तेजी आई और 1832 33 में गेहूं की कीमत ₹1 में 17 सेर तक पहुंच गई 1833 में चना ₹1 का 18 सेर हो गया था। वैसे बाद के सालों में कीमतें कम हुई पर पहले की सबसे कम कीमतों पर नहीं पहुंच सकीं।
1836-40 में गेहूं 1रुपए का 40 सेर था, चना 46 सेर । वहीं 1846 में यहीं आंकड़ा क्रमश: 31और 39 हो गया।1856-60में फिर कीमतें कम हुईं और गेहूं एक रुपए का साढ़े चवालीस किलो और चना 54किलो मिलने लगा ।
पर 1861से 65के बीच फिर तेजी से दाम बढ़े और गेहूं एक रुपए का साढ़े इक्कीस किलो और चना साढ़े चौबीस किलो मिलने लगा और इसका कारण था अमेरिका का युद्ध जिसके कारण कपास की मांग बढ़ गई थी, आसपास के क्षेत्रों के लोग अपनी जमीन पर गेहूं छोड़ कपास उगाने लगे थे, गेहूं का उत्पादन कम हो गया था।
फिर 1968 में बुंदेलखंड में अकाल पड़ा दो आसपास के जिलों में अनाज का संकट पैदा हुआ तो कीमतें बढ़ी अकाल के दौरान और बाद में ज्वार पैदा की जाने लगी तो गेहूं और चने के दाम बढ़ गए। 1870 के आसपास इस क्षेत्र में रेल लाइन आ गई इससे निर्यात शुरू हो गया तो कीमतें बढ़ने लगी। 1878 में फिर अकाल पड़ गया तो अनाज महंगा हुआ । 1878 में गेहूं का भाव प्रति रुपए 12 सेर हो गया । अमेरिका युद्ध के समय से हुई सामान्य वृद्धि से 1871- 76 के बीच बंदोबस्त के समय लगाए अनुमान के अनुसार गेहूं 32 सेर से 16 सेर तथा चना 40 सेर से 20 सेर हो गया था। ज्वार की कीमत वैसे उस समय कम थी पर उसमें भी उतार-चढ़ाव देखे गए। 1861 से 1880 तक ज्वार की कीमत औसत रूप से एक रुपए में साढ़े बाइस सेर थी।
19 वी सदी के अंतिम दशक में मौसम और मांग पूर्ति में बदलाव के कारण गेहूं और ज्वार की कीमतों में अनिश्चित रूप से उतार-चढ़ाव होते रहे। 1893 में गेहूं का सबसे कम दाम ₹1 में 16.4 सेर था और सबसे ज्यादा कीमत 1897 में 8.3 सेर प्रति रुपए थी, वहीं ज्वार का भाव 1874 में सबसे कम था यानी ₹1 का 22.8 सेर, पर 1897 में गेहूं का मुकाबला करते हुए ज्वार का भाव ₹1 का 10.8 सेर तक पहुंच गया, कहते हैं यह भाव अकाल के कारण पहुंचा था ।18 97 में गेहूं का एक रुपए में 8 सेर से कुछ ज्यादा मिलता था ।1898 में दाम कुछ कम हुए तो ₹1 में 11.2 सेर भी मिला हां ज्वार का भाव भी कम हुआ, वह एक रुपए में 20.9 सेर मिलने लगी। आगे अकाल पढ़ जाने के कारण 1900 में इन अनाजों की कीमतें बढ़ी।
20 वीं सदी के प्रारंभ में
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में स्थिति सामान्य होने अच्छी फसल होने के कारण भाव में निरंतर गिरावट आती गई और अनाज के दाम 1903 में सबसे कम हो गए अर्थात ज्वार एक रुपए की 27.2 सेर तक पहुंच गई तथा 1904 में गेहूं ₹1 का 15.2 सेर हो गया था। बाद के वर्षों में फिर दामों में अनिश्चितता की स्थिति रही। 1908 में दामों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, जब अनाज के दाम अपने शिखर पर पहुंच गए अर्थात गेहूं ₹1 का 8.06 सेर तथा ज्वार एक रुपए की 10.15 से तक बिकी। यह ठीक है की इन असामान्य भावों की तुलना आज के भावों से नहीं की जा सकती लेकिन वह हमें तुलना करने का एक दिलचस्प आधार जरूर प्रदान करते हैं।
प्रथम विश्व युद्ध
आगामी दशक के बाद के वर्षों में प्रथम विश्व युद्ध हुआ था, जिसका असर अनाज के दामों पर मौसम और स्थानीय कारणों से ज्यादा दिखा, ज्वार और चना भी गेहूं के लगभग बराबर हो गया था।
1919 में गेंहू एक रूपए का 5.03 सेर, जुआर 6 सेर और चना 6.22 सेर तक बिका।
तीसरे दशक में अनाज की कीमतों कम ज्यादा होती रही 1923 का साल सबसे सस्ता साल रहा इस साल गेहूं चना और ज्वार का भाव क्रमश: एक रुपए का 9.16 12.35 तथा 13.58 सेर रहा। अगले दशक में सभी भाव 1929 में आई भारी मंदी के कारण एक बार फिर कम हो गए । 1933 -34 तक भाव पहले विश्व युद्ध के स्तर तक आ गए थे यानी गेहूं 1रूपए का 14.92, चना 16.91और ज्वार 19.62 सेर तक आ गई थी।
द्वितीय विश्व युद्ध
मंदी के भाव पूरे चौथे दशक में बने रहे, इस दशक में सबसे महंगा गेंहू 1937 में 1रूपए का 10.37सेर मिलता था। द्वितीय विश्व युद्ध की घोषणा के साथ ही मंदी खत्म हो गई। मूल्य नियंत्रण और मुद्रा स्फीति के कारण लगातर बढने वाले मूल्यों के युग का सूत्रपात हुआ। आगामी चार साल अनाज के दाम तेजी से बढ़े । जहां 1940-41में गेंहू का दाम 1रूपए का 9.91चने का 11.25 और ज्वार 6.07 था, वहीं 1944 में गेंहू 2.79 सेर और चना 4.35 सेर तक पहुंच गया।
आजादी के बाद की कीमतें
अनाज के दामों के बढने की शुरुआत आजादी के पहले से हो चुकी थी। 1947 मैं भी एक रुपए का चार सेर गेहूं मिलता था यह भाव जिले के थोक भाव का औसत था देश के विभाजन के कारण बढ़ी वित्तीय कठिनाई के कारण सामान के दाम बढ़ गए थे । प्रथम पंचवर्षीय योजना में अनाज के उत्पादन को बढ़ाने पर जोर दिया गया था दूसरी पंचवर्षीय योजना तक यानी साठ के दशक तक दामों में कोई ज्यादा वृद्धि नहीं हुई। गेहूं का भाव 1962- 63 में 35.8 ₹ प्रति क्विंटल था जो 1968 – 69 तक 80.67 रुपए प्रति क्विंटल हो गया यानी 1962- 63 में गेहूं ₹1 का 2.79 किलो मिलता था तो चना ₹1 का 2.93 किलो 1968- 69 में गेहूं एक रुपए का 1.23 किलो मिलता था और चना एक रूपए का 1.29 किलो तक पहुंच गया। इस दौर में सिर्फ अनाज ही नहीं सभी वस्तुओं के दाम बढ़ने लगे थे।
1974 -75 तक गेहूं का मूल्य 162.84 रूपए प्रति क्विंटल था तो चना 168.18 रूपए और ज्वार 142.98 रूपए प्रति क्विंटल थी, यानी गेंहू की कीमत 1.62प्रति किलो तक पहुंच गई ।
और आज की कीमत तो आप जानते ही हैं।
गेहूं रही है जिले की पहचान
गेहूं सदैव से ही जिले की एक प्रमुख फसल रही है। गेहूं पैदा करना होशंगाबाद जिले के किसानों की विशेषता रही है। काफी समय पहले 1864 में रैसलपुर ग्राम से जलालिया गेहूं का नमूना लिया गया जिसे लखनऊ की प्रदर्शनी में प्रतियोगिता की भारी संख्या के बीच प्रदर्शित किए गेहूं में सबसे बड़े तथा सबसे अच्छे गेहूं के रूप में पुरस्कार मिला था। सफेद पिसी का इंग्लैंड को भारी मात्रा में निर्यात किया जाता था जहां इसका उपयोग अच्छी अमेरिकन किस्में मिलाने के लिए किया जाता था। रैली ब्रदर्स का विचार था कि मध्य प्रांत में सिवनी मालवा की पिसी सबसे अच्छी किस्म की थी । पुराने गजेटियर के अनुसार उस समय पैदा की जाने वाली किसमें थी जलालिया, कठिया सफेद पिसी लाल पिसी, बंसी, बगासिया, मुंडी पिसी तथा लौजिया या सहारिया थीं।