क्या सचमुच होती थीं विषकन्याएं ?

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वैदिक साहित्य, लोक कथाओं और इतिहास में हमेशा से ही विषकन्याओं का जिक्र मिलता है. कहा जाता है कि विषकन्या का प्रयोग राजा अपने शत्रु का छलपूर्वक अन्त करने के लिए किया करते थे। इसकी प्रक्रिया में किसी सुन्दर बालिका को बचपन से ही विष की अल्प मात्रा देकर पाला जाता था और विषैले वृक्ष तथा विषैले प्राणियों के सम्पर्क से उसको अभ्यस्त किया जाता था। इसके अतिरिक्त उसको संगीत और नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी, एवं सब प्रकार की छल विधियाँ सिखाई जाती थीं। अवसर आने पर इस विषकन्या को युक्ति और छल के साथ शत्रु के पास भेज दिया जाता था। इसका श्वास तो विषमय होता ही था, परन्तु यह मुख में भी विष रखती थी, जिससे संसर्ग करनेवाला पुरुष रोगी होकर मर जाता था। चाणक्य द्वारा रचित अर्थशास्त्र (ग्रन्थ) में तथा कल्कि पुराण में विषकन्याओं की चर्चा है।

विषकन्या बनाने तथा उसके प्रयोग की विधि के संकेत रामायण काल तक नहीं मिलते ,महाभारत काल में इसका उल्लेख पाया जाता है परंतु इसका प्रचुर उल्लेख बौद्ध काल के बाद ही मिलता है। एक विचित्र बात यह है कि स्वर्ण रसायन तथा विषकन्या दोनों के प्रयोग लगभग एक साथ विकसित हुए हैं। रसायन के साथ इनका जुड़ा होना बौद्ध काल में रसायन का खूब विकास होना दोनों के निकट संबंध का द्योतक है। कहा जाता है कि नागार्जुन ने अंत में स्वर्ण रसायन का आविष्कार कर लिया था, जिसके द्वारा तांबे (अथवा किसी अन्य सस्ती धातु)  को रासायनिक प्रक्रिया से सोने में परिवर्तित किया जा सकता था । यह भी विश्वास किया जाता है कि यह प्रक्रिया नागार्जुन के साथ ही लुप्त हो गई और बाद में रसायन शास्त्री इसे निरंतर खोजते रहे ।

बौद्ध मत के पतन का कारण था इसमें आज आने वाले कर्मकांड संबंधी तथा वैचारिक दोष। हीनयान तथा महायान में विभाजित होने पर बौद्ध मत ने ही आगे चलकर हठयोगियों, नाथपंथियों, वामाचारियों तथा ऐसे अन्य संप्रदायों को उत्पन्न किया। आरंभ में विषकन्या बनाने का काम यही लोग करते थे। कापालिक, तांत्रिक तथा अघोरियों का जिक्र इस संबंध में आता है।

कुछ लोग बौद्ध मत को नकारात्मक मानते है, क्योंकि उसमें न केवल संसार में भोग विलास की अस्वीकृति है ,अपितु स्वयं संसार को ही दुखमय, क्षणिक एवं मिथ्या माना गया है।  कुछ कापालिकों, वामाचारियोंं और योगियों में एक परंपरा यह चल पड़ी थी कि उनके इंद्रिय निग्रह का प्रमाण यह माना जाएगा कि विषय वासना की प्रतीक नारी के साथ रहकर भी इन साधकों में उनके प्रति आसक्ति आकर्षण ना हो । ध्यान देने की बात यह है कि इन्हीं साधकों का एक वर्ग यौन आनंद को ब्रह्मानंद मानकर विशेष प्रकार की तांत्रिक प्रक्रियाओं का विकास कर रहा था ,फिर हुआ यह होगा कि नारी के आकर्षण से बचने के लिए उसे विष समान बताया गया और विशेष वर्ग के साधकों ने “विषकन्या” का आविष्कार किया।
लोग आश्चर्य करते हैं कि आखिर विषकन्या है क्या? मान्यता यह थी कि यदि किसी कन्या को जन्म के तुरंत बाद थोड़ी-थोड़ी मात्रा में इतना विष खिलाया जाए कि वह मरे नहीं, तो क्रमश: उसे उस मात्रा में विष को आत्मसात करने की आदत पड़ जाएगी, फिर धीरे-धीरे उसके भोजन में विष की मात्रा को क्रमश: बढ़ाया जाए, तो जब तक वह युवती होगी, तब तक उसके नित्य के भोजन में इतना विष सम्मिलित होगा कि जिसमें 50 से 100 व्यक्ति तक मर सकते हैं , परंतु उसके स्वास्थ्य पर उसका प्रभाव नहीं होगा । यही नहीं ,वह उस मात्रा के उत्तरोत्तर परिवर्तित होने वाले विष के बिना नहीं रह सकेगी।  बात वही है , जो आज ‘ड्रग एडिक्शन’ में होती है । इसके साथ साथ यह विश्वास चल पड़ा कि उस विषकन्या के शारीरिक संपर्क मात्र से व्यक्ति तुरंत मर सकता है। कुछ विषकन्या इतनी तीव्र प्रभावशाली मानी जाती थीं कि उनके स्पर्श -चुंबन मात्र से व्यक्ति की मृत्यु  हो जाती थी।
ऐसी थी विष कन्या बनाने की विधि?
कहते हैं कि विषकन्या बनाने में 15 से 20 वर्ष तक लगते थे।  विधि यह थी कि उस बालिका को आरंभ में संखिया ( कभी-कभी धतूरा भी ) दिया जाता था। एक चिकने पत्थर पर संखिया की ढेली से लकीरें खींची जाती और उसे उस कन्या को चटाया जाता था । लकीरों का आकार तथा उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ाई जाती थी।  इस प्रकार उस कन्या के प्रतिदिन के भोजन में विशेषकर प्रातः के प्रथम कलेउ में विष की मात्रा बढ़ते बढ़ते आधी छटांक तक हो जाती थी । सर्वाधिक विषाक्त विषकन्या का स्पर्श मात्र घातक होता था।

कहा जाता है कि कालांतर में राजनीति तथा कूटनीति में इनका प्रयोग होने लगा।  एक राजा दूसरे राजा को मारने के लिए सुंदरी विषकन्या का प्रयोग करता था। धोखे से विषकन्या पर आसक्त कराकर शत्रु को मारने का विधान शास्त्री दृष्टि से चाणक्य की कूटनीति में भी पाया जाता है। प्राचीन नाटकों में भी इसके उल्लेख मिलते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो वह केवल कपोल कल्पना है।  इसका केवल इतना भाग सच है कि यदि आरंभ से विष या अन्य कोई वस्तु खिलाई जाए तो मानव शरीर उसका अभ्यस्त हो जाता है और फिर उसकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई मात्रा को भी सहन कर सकता है, जैसा कि अफीम, हीरोइन आदि नशीली वस्तुओं के साथ होता है।  यह एकदम गलत है कि विषकन्या से शारीरिक संसर्ग या स्पर्श होते ही कोई व्यक्ति मर सकता है ,वास्तव में होता यह था कि कुछ परम सुंदरियां स्त्रियों , नर्तकियों और वेश्याओं आदि को विष के प्रयोग की शिक्षा दी जाती थी और वह संबद्ध व्यक्ति को मुग्ध करके उसे खाने पीने के पदार्थों के साथ विष दे देती थीं। उसके बाद या तो वे भाग जाती थीं या पकड़े जाने पर मारी जाती थी।  इन्हीं विषकन्या देने वाली  स्त्रियों को विषकन्या कहा जाता था। यद्यपि यह सत्य की प्राचीन विश्वास के कारण अनेक योगियों -अघोरियों  ने कुछ कन्याओं को विष खिलाकर उन्हें विषकन्या बनाने का प्रयत्न किया है और इस सिलसिले में असंख्य सुंदर अबोध दुधनी दूधमुहीं कन्याएं मरी हैं।
कर्नाटक में हेलेबिड के प्राचीन मंदिरों में सांपों के साथ विश्व कन्याओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हुई मिलती हैं। समझा जाता था कि कुछ विषकन्याएं सर्प विष खाकर उनकी उसकी मात्रा को क्रमश: बढ़ाते हुए पूर्ण विषकन्या की स्थिति को प्राप्त होती थी। सांपों को पकड़ना उनको पालना उनका विष निकालना तथा उनके साथ खेलना उनका स्वभाव हो जाता था।
यदि विषकन्या की कल्पना में कुछ भी वास्तविकता है तो इससे भयानक मनोवैज्ञानिक अत्याचार और कोई नहीं है। निर्दोष अबोध कन्याओं के जीवन को नष्ट करने की यह विधि परम भयावह रही होगी । यह निश्चित हुआ करता था कि विषकन्या का अंत जवानी में ही हो जाता था क्योंकि उसका प्रयोग तभी तक हो सकता था जब तक उसका शरीर सुंदर तथा आकर्षक रहता था। पकड़े जाने पर तुरंत बध या अग्नि में जलाया जाना कि उसके भाग्य में होता था।
(रविवार 1985 में प्रकाशित आर्केश परंतप के लेख पर आधारित)

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